1857 के विद्रोह का प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर था, किंतु लिंगागिरी का जमींदार धुर्वाराव ने सन् 1856 में ही विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था। इसके थोड़े समय पश्चात् ही राष्ट्रीय स्तर पर भी मई 1857 में महाविद्रोह की अग्नि बस्तर तक पहुंच गई थी। अतः यहां के कुछ जमींदार धुर्वाराव का साथ देने लगे जिनमें बस्तर अरपल्ली एवं घोंट का जमींदार व्यंकटराव भी थे। इन सभी का उद्देश्य ब्रिटिश ष्शासन से मुक्ति थी जिसके साथ ही लगान में वृद्धि, बेगार तथा वन अधिनियम स्वतः आ गये थे।
भोपालपटनम के जमींदार यादोराव जो व्यंकटराव के पिता थे कि गिरफ्तारी के बाद बाबूराव और व्यंकटराव अंग्रेज विरोधी बच गए थे, अंग्रेजों ने बहुत ही चलाकि पूर्वक दोनों को अलग कर दिया। अहिरी की जमींदारीनी लक्ष्मीबाई ने मित्र बनकर सहायता देने के बहाने बाबूराव को धोख देकर गिरफ्तार करवा दिया। अकेले व्यंकटराव को रोहिल्ला मुस्लिम लडा़कों ने कुछ समय तक साथ दिया।
स्थिति दुर्बल जानकार व्यंकटराव बस्तर के राजा भैरमदेव की छाया में गुप्त रुप से रहने चले आये, बस्तर का दीवान दलगंजन भी विद्रोह के पक्ष में थे। व्यंकटराव के बस्तर राजमहल में छिपने की जानकारी अंग्रेजों को भेदियो के द्वारा मिल गयी। अहिरी की जमींदारन लक्ष्मीबाई ने भी चांदा के डिप्टी कमिश्नर को 11 मई, 1859 को पत्र द्वारा भैरमदेव द्वारा व्यंकटराव और क्रंातिकारियों (विद्रोहियों) को महल में छिपा रखने की सूचना भेजी। डिप्टी कमिश्नर के रिपोर्ट के आधार पर भैरमदेव से कड़ाई से पूछताछ कि गयी। भैरमदेव ने व्यंकटराव को अंग्रेजों को सौंप दिया, दिखावे के मुकदमा चलाकर अप्रैल 1860 मंे उन्हें फांसी दे दी गई। इस तरह 1857 में बस्तर के मुक्तिसंग्राम का एक और योद्धा भी बलिदान हो गया तथा पूरा बस्तर अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।